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खिलाफ हवा से गुजरते हुए

विनोद दास

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 604
आईएसबीएन :00000

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इस संकलन की कविताएँ समकालीन समाजिक यथार्थ से सीधी टकराहट की कविताएँ हैं...

Khilaf Hawa se Guzartey huey - A hindi Book by - vinod das खिलाफ हवा से गुजरते हुए - विनोद दास

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय ज्ञानपीठ की नई पीढ़ी को समर्पित प्रतियोगिता क्रम की दूसरी कड़ी में विनोद दास का काव्य-संकलन खिलाफ हवा से गुजरते हुए सर्वश्रेष्ठ निर्णीत हुआ था। देश के कोने-कोने से प्राप्त 234 काव्य-पाण्डुलिपियों में इस काव्य-संकलन को सर्वश्रेष्ठ निर्णाय़क मंडल (सर्वश्री गिरिजा कुमार माथुर, रमानाथ अवस्थी, बिशन टंडन और बालस्वरूप राही) ने कहा था- खिलाफ हवा से गुजरते हुए संकलन की कविताएँ समकालीन समाजिक यथार्थ से सीधी टकराहट की कविताएँ है। उनमें एक नयी अनुभव भूमि उद्घाटित हुई है जिसके वृत्त में साधारण आदमी के संघर्ष सुख-दुख परिस्थितियों की विडम्बनायें विषम स्थितियों से जूझने की पीड़ायें बहुत मर्मशीलता के साथ अभिव्यक्त हुई हैं। जन परम्पराओं को लेकर आदमी के निकटतम परिवेश के छोटे-छोटे उपकरण, वस्तुएँ दैनिक क्रिया-कलाप, गृह-गंध और वे सारे शब्द-बिम्ब जिनके भीतर से आदमी के सहज जीने की छवियाँ झाँकती है, बहुत ही सीधी सजीव भाषा में व्यक्त किये गये हैं। इन कविताओं की भाषा सीधे जिंदगी से उठाई गई है और उसमें आज के मुहावरे का यथार्थ (रीयलिज्म) दृटव्य है। आज की समकालीन कविता जब अन्योत्तिपरक होकर रह गयी है रपट बन गयी है एक से शब्द-बिम्बों की दुहराहट सर्वत्र दिखाई देती है और यथार्थ की मार्मिक संवेदना के स्थान पर यथार्थ के कंकाल की खड़खड़ाहट सुनाई देती है, तब ये कवितायें सामाजिक तथ्यों और शिल्प का एक नया नमूना नयी पीढ़ी के सामने रखती हैं। इन कविताओं में सामाजिक परिवर्तन की अदम्य आकांक्षा अत्यंत आत्मीय संबंधों के बीच से जागृत हुई है। जमीन की गंध से जुड़ी हुई इन कविताओं से सामाजिकता को एक नयी दिशा मिलेगी। साहित्य में अपनी पहचान स्थापित करने में नये लेखकों को भारतीय ज्ञानपीठ सदा सक्रिय सहयोग देता आया है। इसी क्रम में हमारे इस उल्लेखनीय प्रयास का भी साहित्य जगत में सोत्साह स्वागत होगा,. इसका हमें विश्वास है।

प्रतियोगिता-क्रम नयी पीढ़ी के लिए

परिकल्पना

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित अग्रणी असमी साहित्यकार श्री वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य से बातचीत हो रही थी। प्रसंग आया : यह युग पुरस्कारों का है और युवा रचनाकार विशेष रूप से सक्रिय रहता है कि कैसे भी कोई न कोई पुरस्कार पा ही ले। स्वाभाविक था, प्रश्न उठा कि आखिर नयी पीढ़ी के अधिकतर रचनाकार पुरस्कारों के लिए इतने लालायित क्यों ? एक स्पष्टीकरण मेरा भी था। आज से 2-3 दशक पूर्व अच्छी साहित्यिक पत्रिकाओं की कमी नहीं थी और न ही लेखकों की इतनी भीड़। उन समादृत साहित्यिक पत्रिकाओं में किसी नये कृतिकार की रचनाएँ स्थान पा जातीं तो उसके आगमन की विधिवत् सूचना मिल जाती और सहज रूप से सभी का ध्यान उसकी ओर चला जाता था। एक-एक कर वे सभी पत्रिकायें जो एक प्रकार से साहित्य का प्रवेश द्वार थीं, बन्द होती चली गयीं और उदयीमान रचनाकार के सामने कोई ऐसा माध्यम रह न गया जिसका प्रयोग कर वह साहित्य में अपनी पहचान स्थापित करने का प्रयास करे। नये हस्ताक्षर कहाँ अंकित हों, यह समस्या गंभीर होती गयी। आज किसी पत्रिका की सफलता की कसौटी उसकी व्यावसायिक सफलता मानी जाती है उसका साहित्यिक मान नहीं। मानदण्ड जो बदल गये हैं-केवल साहित्य के ही नहीं, पूरे जीवन के। आज जब देशवासियों का जीवन-स्तर उठाने की बात की जाती है तब उसका अर्थ यह नहीं होता कि नागरिकों की जीवन-शैली में मूल्यों का समावेश हो। बल्कि यह होता कि उनकी जीवन-शैली में मूल्यवान वस्तुओं का समावेश हो। आज मूल्य मूल्य का नहीं, वस्तु का है। ऐसी स्थिति में गम्भीर साहित्य के सम्मुख वास्तविक संकट उत्पन्न हो जाना नितान्त स्वाभाविक है। अच्छे सृजन के लिए माहौल ही नहीं है। प्रतिमाएँ दुलर्भ हैं और उनमें से भी अधिकतर शॉर्ट-कट की अभ्यस्त हो चुकी हैं। कलम उठाते ही यशस्वी होने की चिन्ता उन्हें सताने लगती है। जब साधना से अधिक महत्व साधनों का हो, तब यह सब तो होगा ही। इस समय सबसे आवश्यक है प्रतिभा की सही परख और उसके उन्नयन में ईमानदार सहयोग। सही परख के अभाव में नया रचनाकार स्वयं को सामने लाने के लिए पुरस्कारों के पीछे न भागे तो क्या करे !

भारतीय ज्ञानपीठ प्रारम्भ से ही नयी प्रतिभाओं के साथ रहा है। यह कोई गर्वोक्ति नहीं है, न ही कोई दावा। यह तो मात्र एक भावोद्गार है। भारतीय ज्ञानपीठ पूरी निष्ठा एवं सद्भावना के साथ नयी प्रतिभा को पहचानने और साहित्य में उसकी पहचान बनाने में निरन्तर प्रयत्नशील रहा है। साक्षी हैं वे अनेक यशस्वी कृतियाँ जो प्रतिभावन लेखकों की प्रारम्भिक कृतियाँ होने के बावजूद ज्ञानपीठ से छपीं।

हम अब नयी पीढ़ी के पास जाना चाहते हैं। अब हमें ‘चिकने पातों’ की तलाश है। हम जानते हैं कि होनहार बिरवान के होत चीकने पातों को सामान्यत: ओस की बूँद नहीं, लू के थपेड़े मिलते हैं। रचनाकार की पहली-पहली कृति को कोई बड़ा प्रकाशक हाथ लगाने में संकोच करता है। हमारा उद्देश्य विशुद्ध साहित्यिक है, अत: हमारे लिए प्रकाशक के व्यावसायिक आग्रह कोई अर्थ नहीं रखते।

नयी पीढ़ी को प्रोत्साहित करने की अपनी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए भारतीय ज्ञानपीठ ने नयी पीढ़ी के लिए एक सर्वथा नये और अछूते आयोजन का सूत्रपात किया है। यह आयोजन है- प्रतियोगिता क्रम जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम कहानी की विधा को लिया गया।

एक आत्मीय सम्बन्ध की शुरुआत

कथा-प्रतियोगिता के निर्णायक मणडल में थे- श्रीमती शिवानी, सर्वश्री कन्हैयालाल नन्दन, बिशन टंडन और बालस्वरूप राही। कथा-प्रतियोगिता के लिए प्राप्त 86 पाण्डुलिपियों में से डॉ.ऋता शुक्ल के कहानी संकलन की पाण्डुलिपि को सर्वसम्मति से बेहतरीन करार दिया गया। इस कथा प्रतियोगिता की सर्वप्रमुख विशेषता तो यही रही है कि इसमें एक कहानी के स्थान पर सम्पूर्ण कहानी-संकलन की पाण्डुलिपि आमंत्रित की गयी। ऐसी प्रतियोगिताएँ तो आये-दिन होती रहती हैं जिनमें एक कहानी आमंत्रित कर विजयी कथाकारों को पुरस्कार की कोई पूर्व-निश्चित राशि भेंट की जाती है। एक दिन समाचार पत्रों और कुछ दिन पत्र-पत्रिकाओं में चर्चा होती है और फिर बात आयी-गयी हो जाती है। हम चाहतें हैं कि भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा आयोजित प्रतियोगिता के कुछ ठोस परिणाम सामने आयें और उसकी उपयोगिता दूरगामी हो। अत: प्रतियोगिता का स्वरूप स्थिर करते समय हमने यह निर्णय किया कि विजयी प्रतियोगी को कोई नकद पुरस्कार न देकर उसकी पाण्डुलिपि भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित करे। साथ ही यह भी कि बात केवल विजयी पाण्डुलिपि के प्रकाशन तक सीमित न रहे, बल्कि भारतीय ज्ञानपीठ उसे अपने-लेखक परिवार का एक अभिन्न अंग ही बना ले और उसकी भावी रचनाओं को भी समय-समय पर प्रकाशन के अवसर प्रदान करता रहे और इस प्रकार भारतीय ज्ञानपीठ और विजयी लेखक के बीच एक आत्मीय सम्बन्ध की शुरूआत हो।

इस परिकल्पना के तहत हमने कथा-प्रतियोगिता में विजयी डॉ. ऋता शुक्ल के कथा-संकलन ‘क्रौंचवध तथा अन्य कहानियाँ’ का प्रकाशन किया। 12-13 अक्टूबर, 1985 को दिल्ली में ‘‘कथा पर्व’’ का आयोजन किया गया जिसमें 12 अक्टूबर को डॉ. ऋता शुक्ल का सम्मान किया गया और उनके कथा-संकलन का विमोचन हुआ। इस अवसर पर प्रसंगवश उन्हें ‘क्रौंचवध तथा अन्य कहानियाँ’ के प्रथम संस्करण की अग्रिम रॉयल्टी के अंश रूप में 5100/- की राशि भी भेंट की गई।
‘कथा पर्व’ में ज्ञानपीठ के मैनोजिंग ट्रस्टी श्री अशोक कुमार जैन ने आगामी प्रतियोगिता की घोषणा करते हुए कहा-- ‘कविता में मानवीय सद्गुणों को उभारने की क्षमता है इसलिए अब नयी पीढ़ी के लिए प्रतियोगिता-क्रम में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा काव्य-प्रतियोगिता का आयोजन किया जाएगा। इस प्रतियोगिता की उपयोगिता इसलिए और भी अधिक होगी क्योंकि कविता-संग्रह आमतौर पर कम बिकते हैं और प्रकाशक उसमें रुचि नहीं ले पाते।’

प्रतियोगिता-क्रम की दूसरी कड़ी:

काव्य-प्रतियोगिता

कहानी-प्रतियोगिता में 86 पाण्डुलिपियाँ आयी थीं और काव्य-प्रतियोगिता में (काव्य-संकलन, काव्य-नाटक, खण्ड-काव्य आदि) की 234 पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुईं। इससे प्रकट होता है कि ज्ञानपीठ द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में लेखकों की रुचि बढ़ती जा रही है। काव्य-प्रतियोगिता के लिए प्रमुख शर्त यह रखी गयी थी कि प्रतियोगी की आयु 1 जनवरी, 1986 को 35 वर्ष से अधिक न हो और तब तक उसकी कोई काव्य-कृति प्रकाशित न हुई हो। 234 पाण्डुलिपियों में से सर्वश्रेष्ठ पाण्डुलिपि का एक चुनाव एक दुष्कर और चुनौती भरा कार्य प्रमाणित हुआ। कुछ पाण्डुलिपियाँ ऐसी थीं जिनमें भाषा, छन्द आदि की आशुद्धियाँ और अपरिपक्वता थी। तब भी आधिकांश प्रविष्टियों का स्तर संतोषजनक और आश्वासनकारी रहा। 30-35 पाण्डुलिपियाँ ऐसी थीं जिन पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना अनिवार्य था। 8-10 पाण्डुलिपियाँ तो ऐसा थीं जिन्हें सहज ही अच्छी कविता के नमूने कहा जा सकता था। किन्तु चुनना तो बस एक को था। अत: लम्बे विचार-विनिमय और श्रेष्ठतर पाण्डुलिपियों के सभी पक्षों का विश्लेषण करने के उपरान्त श्री विनोद दास का काव्य-संकलन ‘खिलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’ सर्वश्रेष्ठ करार दिया गया।

निर्णायक मण्डल (सर्वश्री गिरिजा कुमार माथुर, रमानाथ अवस्थी, बिशन टंडन और बालस्वरूप राही) ने अपने निर्णय का आधार स्पष्ट करते हुए श्री विनोद दास की कविताओं की कतिपय विशिष्टताओं को इन शब्दों में व्यक्त किया:
‘ख़िलाफ़ हवा से गुजरते हुए’ संकलन की कविताएँ समकालीन सामाजिक यथार्थ से सीधी टकराहट की कविताएँ हैं। उनमें एक नयी अनुभव-भूमि उद्घाटित हुई है जिसके वृत्त में साधारण आदमी के संघर्ष, सुख-दुख, परिस्थितियों की बिडम्बनाएँ, विषम स्थितियों से जूझने की पीड़ायें बहुत मर्मशीलता के साथ अभिव्यक्त हुई हैं। जन-परम्पराओं को लेकर आदमी के निकटतम परिवेश के छोटे-छोटे उपकरण, वस्तुएँ, दैनिक क्रिया-कलाप, गृह-गंध और सारे शब्द विम्ब जिनके भीतर से आदमी के सहज जीने की छवियाँ झाँकती हैं, बहुत ही सीधी, सजीव भाषा में व्यक्त किए गए हैं। इन कविताओं की भाषा को सीधे ज़िन्दगी से उठाया गया है और उसमें आज के मुहावरे का यथार्थ (रीयलिज़्म) दृष्टव्य है। आज की समकालीन कविता जब अन्योक्ति परक होकर रह गयी है, रपट बन गई है, एक-से शब्द-बिम्बों की दुहराहट सर्वत्र दिखाई देती है और यथार्थ की मार्मिक संवेदना के स्थान पर उसके कंकाल की खड़खड़ाहट सुनाई देती है, तब ये कविताएँ समाजिक तथ्यों और शिल्प का एक नया नमूना नयी पीढ़ी के सामने रखती हैं। इन कविताओं में सामाजिक परिवर्तन की अदम्य आकांक्षा अत्यन्त आत्मीय सम्बन्धों के बीच से जाग्रत हुई है। ज़मीन की गन्ध से जुड़ी हुई इन कविताओं से सामाजिकता को एक नयी दिशा मिलेगी।

आज के आदमी की दिनचर्या, उसके सामान्य जीवन के विविध अनुभवों को सहजपूर्वक अभिव्यक्त करने वाली ये कविताएँ अन्तत: गहरे, विषम सामाजिक सन्दर्भों से जुड़ जाती हैं। इनमें कोई नारा नहीं, कोई मताग्रह नहीं, कोई दंभ नहीं, कोई चापलूसी नहीं, कोई फ़ैशनपरस्ती नहीं, ये रमात्चनाएँ मात्र कविताएं हैं।

एक कविता है ‘बढ़ती हुई लड़की’:
इस लड़की के बस्ते में
अब नहीं मिलती हैं कच्ची कच्ची इमलियाँ
खटमीठे फालसे भी नहीं मिलते हैं
कॉपी के अन्तिम पन्ने पर
लिखी मिलती है प्रेम कविता

कविता ‘गले मिलते रंग में’ खिल उठे हैं किशोरावस्था के सपने:

जब मिलता है गले एक रंग
दूसरे रंग से
कुछ बदल जाता है उसका रंग
पहले से
जैसे कुछ बदल जाता है आदमी
दूसरे आदमी के मिलने के बाद
रंगों की बारिश हो रही है
और पत्तियों से टपक रहा है रंग
मेरी आत्मा के भीतर
हवा में गूँज रहा है
सिर्फ़ एक शब्द बार-बार
प्यार प्यार प्यार

परन्तु कितने ही किशोर सपने बेहद बदरंग हो जाते हैं प्रतिकूल परिस्थितियों के दबाव से। ‘चाँदी के तार’ की ये पंक्तियाँ देखिए:
वह रोज़
एक पुराने संदूक से
नए और तह किये कपड़े निकालती
थोड़ी देर उसे हाथ से सहलाने के बाद
वह सोचती कि इसे उस दिन पहनेगी
फिर उसी सँदूक में आहिस्ता से
उन कपड़ों को तहाकर रख देती
एक दिन
उसने दर्पण में देखे
अपने सिर में कई चाँदी के तार
उस रात घोड़ों की टापों ने
उसे रौंद डाला

‘विवाह की पहली वर्षगाँठ पर’ का एक अनुभव:

इस दरम्यान सीखा है बहुत कुछ
मसलन माँगकर सिगरेट पीने का सलीक़ा
आलू खरीदने के बाद
हरी मिर्च मुफ़्त लेने का तरीक़ा

‘खिलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’ की एक अत्यधिक विशिष्ट कविता है ‘बीड़ी’। क्रांति की आहटें किस खूबसूरती के साथ ध्वनित की गई हैं:
सामने से एक बीड़ी पीता हुआ आदमी आता है
अधजली बीडी़ वाला उसे रोकता है
बीड़ी से बीड़ी मिलती है।
आग से आग फैलती है।

31 वर्षीय विनोद दास मात्र एक कवि ही नहीं कथा-साहित्य, भेंटवार्ता, आलोचना, और अनुवाद के क्षेत्रों में भी उनका कृतित्व उल्लेखनीय है। नई पीढ़ी के विशिष्ट हिन्दी कवि करार दिये जाने की घोषणा से रोमांचित हो उन्होंने कहा-
‘मुझे इसकी बिलकुल उम्मीद नहीं थी। मैं तो अपने काव्य–संकलन की प्रतियाँ तैयार कर कोई और प्रकाशक ढूँढ़ने के प्रयास में था। मैं सचमुच आह्लादित हूँ।’

बातचीत के दौरान उन्होंने एक बात और कही जो हमारे लिए संतोष और प्रेरणा का कारण है। उन्होंने कहा कि ‘यह प्रतियोगिता-क्रम एक बड़ी अच्छी शुरुआत है। इससे देश के कोने-कोने में साहित्य-सृजन में रत उदीयमान लेखकों को यह आश्वासन मिलेगा कि यदि वह गंभीरतापूर्वक साहित्य-साधना में तल्लीन रहें, तो कभी न कभी उनकी प्रतिभा भी ऐसे ही पहचानी जायेगी।’ उन्होंने गद्गद् कंठ से यह आश्वासन दिया कि वह भारतीय ज्ञानपीठ को कभी निराश नहीं करेंगे और अधिकतम समर्पित भाव से स्वयं को काव्य-सृजन को सौंप देंगे।

इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं से हमें यह प्रतियोगिता-क्रम जारी रखने का बल मिलता है और इसकी सार्थकता में हमारी निष्ठा और पुष्ट हो जाती है। एक सपना था जो भारतीय ज्ञानपीठ की संस्थापिका श्रीमती रमा रानी जैन ने देखा था। वह सच्ची साहित्य-मर्मज्ञा थीं और उनकी हार्दिक आकांक्षा थी कि वह नई पीढ़ी के होनहार बिरवों को फलते-फूलते देखें। उनका स्वप्न तो विराट् था। हम उनके स्वप्न को आंशिक रूप से भी साकार कर सके, तो अपने को धन्य मानेंगे।
हमारा प्रयास होगा कि नयी पीढ़ी के लिए यह प्रतियोगिता-क्रम जारी रहे और कहानी तथा कविता के बाद नाटक, उपन्यास, व्यंग्य, ललित निबंध आदि की विधाओं में भी प्रतियोगिताएँ आयोजित हों।

तो लीजिए, प्रस्तुत है विनोद दास का काव्य-संकलन ‘खिलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’। हमें विश्वास हैं इसमें से गुज़रते हुए आपको अपनेपन और ताज़गी का एहसास होगा।

आमुख

शुरू-शुरू में कविताएँ प्रकाशित कराना मुझे बहुत उत्साहवर्धक नहीं लगता था। इस संग्रह की मुद्रण प्रति तैयार करने और प्रतियोगिता में भेजने के लिए भी मुझे अपने आप से कम नहीं लड़ना पड़ा। कविताएँ सुनाने में भी संकोच रहा है। आत्मीय मित्रों के दबाव में छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ भेजनी शुरु कीं। कविताएँ छपने लगीं तो यह सिलसिला और आगे बढा।

इस संग्रह की ज्यादा कविताएँ पिछले दो-तीन वर्षों में लिखी गयी हैं। कुछ कविताएँ ऐसी भी शामिल हैं, जब मैं कविता का ककहरा सीख रहा था। पाठकों में गहरी आस्था है। मुझे यकीन है कि वे ऐसी कविताओं को इस संग्रह में शामिल करने के औचित्य को समझेंगे।
विनोद दास

चाँदी के तार

वह रोज़
एक पुराने संदूक से
नए और तह किये कपड़े निकालती

थोड़ी देर उसे हाथ से सहलाने के बाद
वह सोचती कि इसे उस दिन पहनेगी
फिर उसी संदूक में आहिस्ता से
उन कपड़ों को तहाकर रख देती

जब होती कहीं आस-पड़ोस में शादी
उसको चढ़ आता है बुख़ार
और भयकर दर्द से
उसकी देह ऐंठने लगती

वह सोने से पहले
हर रात देखती एक सजा घोड़ा
जो आकाश से उतरता था
और उसे बहुत दूर ले जाता था

एक दिन
उसने दर्पण में देखे
अपने सिर में कई चाँदी के तार
उस रात घोड़ों के टापों ने
उसे रौंद डाला।

पारदर्शी किला

यह एक पारदर्शी किला है
घंटी चीख़ती है
रपटता है बीड़ी बुझाकर
बंद कमरे की तरफ़
स्टूल पर बैठा आदमी

घंटी इंतज़ार नहीं कर सकती
कर सकती है नींद हराम
बिगाड़ सकती है जीवन
देर होने पर

इस बंद कमरे में
आख़िर किस पर बहस होती है
अक्सर एक सु्न्दरी होती है वहाँ
एक पेंसिल और छोटी कॉपी के साथ
वे चाय पीते हैं हँसते हैं लगातार
स्टूल पर बैठा आदमी सोचता है
क्या हँसना इतना आसान है

स्टूल पर बैठा आदमी
हँस रहा है
पर उसके हँसने की शक़्ल
रोने से इस क़दर मिलती क्यों है

तवा

यह लौटने का वक़्त है

एक औरत इंतज़ार करती है
चूल्हे के पास रखे तवे के साथ

तवा ठंडा है

मैं जब कोई ठंडा तवा देखता हूँ
काँप उठता हूँ
ठंडे तवे के पास फैली है
उदास ख़ामोशी

इस उदास ख़ामोशी से
मैं निपटना चाहता हूँ
तवे को मैं तपता हुआ देखना चाहता हूँ
लेकिन यह चुनौती देता रहता है
मुझे सुबह और शाम
लौटने का वक़्त हो चला है

अभी एक आदमी
कुछ बुदबुदाता आयेगा
एक गंदे झोले के साथ
थककर चूर

आग दहकेगी तवा गरम होगा
पकते हुए आटे की गंध
चारों तरफ़ फैल जायेगी
फिर तवा सो जायेगा
ठंडे चूल्हे के पास
अगले दिन आग में जलने के लिए
बिना किसी पश्चात्ताप

साँस रोक कर याद करो भोपाल


एक

देखो देखो भाग रहे हैं लोग
खाँसते खखारते
आँखें मलते साफ़ करते
अपनी छाती दबाये हुये
कुहरे में भाग रहे हैं लोग
न जाने किस ओर
एक-दूसरे से बेख़बर

लोग भाग रहे हैं
और पकड़े नहीं है
किसी का हाथ

क्यों भाग रहे हैं लोग
क्या जल्दी है
आश्चर्य है
उन्होंने ताले भी नहीं लगाये
अपने घरों में
वे सिर्फ भाग रहे है
बेतहाशा छोड़कर होशो-हवास

उनके पास कोई नहीं है सामान

सिर्फ़ हवा है
और पैरों तले ज़मीन
कुछ ही क्षणों में
हवा ने दे दी दग़ा
और वे ख़ाली शीशियों की तरह
लुढ़क गये ज़मीन पर
फड़फड़ाते हुए

उस सुबह
फिर हमारी आँखें ही नहीं
पत्थर, पत्तियाँ और ज़मीन भी गीली थीं

दो

अजीब दृश्य है

इस शहर में चारों तरफ़ आँखें ही आँखें हैं
चलती फिरती
गहरी सुर्ख़ आँखें
या खुली फैली निश्चल आँखें

फैली निश्चल आँखों को देखकर
मुझे लगता है
जैसे वे विनती कर रहे हों
अभी और दुनिया देखने की

थोड़ी दूरी पर
बकरी इस कदर सुन्दर लग रही है
कि मैं अपने आपको रोक नहीं पाता हूँ
मैं उसकी पूँछ छूता हूँ
उसके शरीर में कोई हरकत नहीं होती है
उमेठता हूँ कान
उसके शरीर में कोई हरकत नहीं होती है
मैं अपनी आँखों पर डालता हूँ ज़ोर
और हैरानगी से फेरता हूँ
उसकी त्वचा पर हाथ

उसकी त्वचा
न तो पत्थर की है
और न ही रबड़ की
उसकी त्वचा सिर्फ़ बकरी की त्वचा है
शत प्रतिशत बकरी की त्वचा
सिर्फ़ उसमें वह कंपन नहीं है
जिससे आ जाती
हथेलियों में गर्माहट

डरा हुआ
जब मैं सोचता हूँ
लोगों की आँखें फैली क्यों हैं
वे हिलती-डुलती क्यों नहीं
लोगों को छूने से
मेरी हथेलियों में क्यों नहीं आती गर्माहट

मेरा शरीर झनझनाने लगता है

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